बहुत पहले की बात है,
जब में कुछ नहीं था तब
में देखता था राह चलते लोगो को
झूटी हांसी और दुःख में दिखते थे सब.
हस्ता था में उनपे यह सोच के कि
ऐसी भी क्या बात है जो इन्हे
संतुलन करना नहीं आता?
जवाब बड़े होने के बाद मिला.
वह संतुलन ही था जो मुझे दिखता था
वह झूटी हांसी जो दिखने में प्यारी लगती थी
इतनी प्यारी कि सच्चे दुःख को ढक लेती थी.
संतुलन ही था.
वह झूटी हांसी जो खुद को अंदर से दबोच लेती थी
पर अपनों को चैन कि सांस लेने देती थी.
आंखे जो नरम होके चमकती थी
पर आंसुओ को समेटे रहती थी.
आइने के सामने जाने की हिम्मत देती थी
वह संतुलन ही है.
आज भी हांसी आती है मुझे
पर अब खुद पे.
ऐसी भी क्या बात है जो मुझे
संतुलन करना सीखा गयी?
जवाब आज भी नहीं मिला.