आइना समेट रहा था, खुद को समेट लिया
एक टुटा आइना सच कह गया.
चेहरा नहीं पर दिल दिखा गया.
बिखरा जरूर पर
देखने वाला भी तो बिखरा ही था.
आइना जीता और बिखरा हार गया.
खुद को समेटना जो भूल गया था
वह अपने बिखरे आप को समेटने लगा.
किसे पता था…
पहली बार उसे कुछ अच्छा लगा.
दिल के दरार आईने पे आगये,
पर जैसे जैसे आइना समेटा
एक चेहरा सामने आया.
वह चेहरा उसने कही तो था देखा.
बहुत पहले. समेटा हुआ चेहरा.
अब उसे फिरसे वही चेहरा देखना है.
आईने के सामने खड़े होक खुद से कहना है,
की वह वापिस पहले जैसा हो गया है.
और किसी टूटे हुए आईने से कहना है,
वह गलत है, देखने वाला फिरसे पूरा हो गया है.
बहुत खूब! जो बिखर गया उसे समेट लो, टूटा आईना जुड़ता नहीं, पर खुद टूटो तो, आईने में देखो और खुद को खुद ही जोड़ लो
LikeLiked by 1 person
Ekdam sahi 🙂
Thank you for liking my Poem 😀
LikeLike
वाह सुंदर प्रयास👌
LikeLiked by 1 person
Dhanyawad. 🙂
LikeLiked by 1 person